लेखिका - रंजना भाटिया "रंजू"
समीक्षक - दिलीप कवठेकर
युगों पहले जिस दिन क्रौंच पक्षी के वध के बाद वाल्मिकी के मन में करुणा उपजी थी, तो उनके मन की संवेदनायें छंदों के रूप में उनकी जुबान पर आयी, और संभवतः मानवी सभ्यता की पहली कविता नें जन्म लिया.तब से लेकर आज तक यह बात शाश्वत सी है, कि कविता में करुणा का भाव स्थाई है. अगर किसी भी रस में बनी हुई कविता होगी तो भी उसके अंतरंग में कहीं कोई भावुकता का या करुणा का अंश ज़रूर होगा.
रंजना (रंजू) भाटिया की काव्य रचनायें "साया" में कविमन नें भी यही मानस व्यक्त किया है,कहीं ज़ाहिर तो कहीं संकेतों के माध्यम से. इस काव्यसंग्रह "साया" का मूल तत्व है -
ज़िंदगी एक साया ही तो है,
कभी छांव तो कभी धूप ...
मुझे जब इस कविता के पुष्पगुच्छ को समीक्षा हेतु भेजा गया, तो मुझे मेरे एहसासात की सीमा का पता नहीं था. मगर जैसे जैसे मैं पन्ने पलटता गया, अलग अलग रंगों की छटा लिये कविताओं की संवेदनशीलता से रु-ब-रु होने लगा, और एक पुरुष होने की वास्तविकता का और उन भावनाओं की गहराई का परीमापन करने की अपनी योग्यता, सामर्थ्य के कमी का अहसास हुआ.
जाहिर सी बात है. यह सन्मान, ये खुसूसियत मात्र एक नारी के नाज़ुक मन की गहराई को जाता है.मीठी मीठी मंद सी बयार लिये कोमल संवेदनायें, समर्पण युक्त प्रेम, दबी दबी सी टीस भरी खामोशी की अभिव्यक्ति, स्वप्नों की दुनिया की मासूमियत , इन सभी पहलूओं पर मात्र एक नारी हृदय का ही अधिपत्य हो सकता है. प्रस्तुत कविता की शृंखला ' साया 'में इन सभी विशेषताओं का बाहुल्य नज़र आता है.
कविता हो या शायरी हो, कभी उन्मुक्त बहर में तो कभी गेय बन्दिश में, कभी दार्शनिकता के खुले उत्तुंग आसमान में तो कभी पाठ्यपुस्तक की शैली हो, सभी विभिन्न रंगों में चित्रित यह भावचित्र या कलाकृति एक ही पुस्तक में सभी बातें कह जाती है, अलग अलग अंदाज़ में, जुदा जुदा पृष्ठभूमि में. मीरा का समर्पण है,त्याग की भावना है और साथ ही कमाल की हद तक मीर की अदबी रवानी और रिवायत भी.
आगे एक जगह फ़िर चौंक पडा़, कि सिर्फ़ स्त्री मन का ही स्वर नहीं है, मगर पुरुष के दिल के भीतर भी झांक कर, उसके नज़रीये से भी भाव उत्पत्ति की गई है . ये साबित करती है मानव संबंधों की विवेचना पर कवियत्री की पकड जबरदस्त है. साथ ही में विषयवस्तु पर उचित नियंत्रण और परिपक्वता भी दर्शाती है.
रन्जु जी के ब्लोग पर जा कर हम मूल तत्व की पुष्टि भी कर लेतें है, जब एक जगह हम राधा कृष्ण का मधुर चित्र देखते है, और शीर्षक में लिखा हुआ पाते हैं- मेरा पहला प्यार !!!
उनके प्रस्तुत गीत संग्रह के प्रस्तावना "अपनी बात" में वे और मुखर हो ये लिखती हैं कि:
"जीवन खुद ही एक गीत है, गज़ल है, नज़्म है. बस उसको रूह से महसूस करने की ज़रूरत है. उसके हर पहलु को नये ढंग से छू लेने की ज़रूरत है."
सो ये संग्रह उनके सपनों में आते, उमडते भावों की ही तो अभिव्यक्ति है, जीवन के अनुभव, संघर्ष, इच्छाओं और शब्दों की अभिव्यक्ति है.
मेरा भी यह मानना है, कि हर कवि या कवियत्री की कविता उसके दिल का आईना होती है. या यूं कहें कि कविता के शैली से, या बोलों के चयन से अधिक, कविता के भावों से हम कविहृदय के नज़दीक जा सकते है, और तभी हम साक्षात्कार कर पाते हैं सृजन के उस प्रवाह का, या उसमें छिपी हुई तृष्णा के की सांद्रता का. तब जा कर कवि और कविता का पाठक से एकाकार हो रसोत्पत्ति होती है, और इस परकाया प्रवेश जैसे क्रिया से आनंद उत्सर्ग होता है. व्यक्ति से अभिव्यक्ति का ये रूपांतरण या Personification ही कविता है.
अब ज़रा कुछ बानगी के तौर पर टटोलें इस भावनाओं के पिटारे को:
संवेदना-
दिल के रागों नें,
थमी हुई श्वासों ने,
जगा दी है एक संवेदना......
(Sayaa 7)
अजब दस्तूर-
ज़िन्दगी हमने क्या क्या न देखा,
सच को मौत के गले मिलते देखा
(Saayaa )
जाने किस अनजान डगर से
पथिक बन तुम चले आये...
काश मैं होती धरती पर बस उतनी
जिसके ऊपर सिर्फ़ आकाश बन तुम चल पाते....
ऐसा नहीं है कि यह कविता संग्रह संपूर्ण रूप से मुकम्मल है, या इसमें कोई कमी नहीं है.
जैसा कि इस तरह के प्रथम प्रस्तुतिकरण में अमूमन होता चला आया है, कि रंगों की या रसों की इतनी बहुलता हो जाती है, कि कभी कभी वातवरण निर्मिती नही हो पाती है, और पाठक कविता के मूल कथावस्तु से छिटका छिटका सा रहता है.मगर ये क्षम्य इसलिये है, कि इस तरह के संग्रह को किसी जासूसी नॊवेल की तरह आदि से लेकर अंत तक अविराम पढा़ नहीं जा सकता, वरन जुगाली की तरह संत गति से विराम के क्षणों में ही पढा़ जाना चाहिये.
हालांकि इन कविताओं में काफ़िया मिलाने का कोई यत्न नहीं किया गया है, ना ही कोई दावा है, मगर किसी किसी जगह कविता की लय बनते बनते ही बीच में कोई विवादी शब्द विवादी सुर की मानिंद आ जाता है, तो खटकता है, और कविता के गेय स्वरूप की संभावनाओं को भी नकारता है.
संक्षेप में , मैं एक कवि ना होते हुए भी मुझे मानवीय संवेदनाओं के कोमल पहलु से अवगत कराया, रंजु जी के सादे, सीधे, मगर गहरे अर्थ वाले बोलों नें, जो उन्होने चुन चुन कर अपने अलग अलग कविता से हम पाठकों के समक्ष रखे हैं. वे कहीं हमें हमारे खुदी से,स्वत्व से,या ब्रह्म से मिला देते है, तो कभी हमें हमारे जीवन के घटी किसी सच्ची घटना के अनछुए पहलु के दर्शन करा देते है.क्या यही काफ़ी नही होगा साया को पढने का सबसे बडा़ कारण?
दिलीप जी की आवाज़ में कुछ साया की रचनाये आप यहाँ सुन सकते हैं ...आवाज़
बुधवार, 26 नवंबर 2008
- पॉडकास्ट पुस्तक समीक्षा
पुस्तक - साया (काव्य संग्रह)
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14 टिप्पणियां:
आवाज तो नही सुन पाए। पता नही क्यों स्पीकर नही चल रहे। वैसे समीक्षा अच्छी हैं।
बहुत बढिया समीक्षा है
एक सुँदर भावपूर्ण
काव्य पुस्तक की
बधाई पुन:
स स्नेह,
- लावण्या
ranju ji ko mere taraf se bahot bahot badhai pustak ke liye...
arsh
अच्छी समीक्षा की गयी है !
रंजना जी, दिलीप जी की आवाज़ में आपकी रचनाएं मैंने आवाज़ पर सुनी, बहुत अच्छा लगा. आपको बहुत बहुत बधाई. विदेश में रहने वाले पाठक इस पुस्तक को किस तरह प्राप्त कर सकते हैं, यह जानकारी भी कृपया अपने ब्लॉग पर उपलब्ध करा दीजिये.
अच्छी समीक्षा
बहुत बढिया समीक्षा है
बेहद खूबसुरत . शुभकामनाएं.
मैं कवि नहीं हूं ये बात हमेशा से चुभती आयी है. मगर आपके काव्य संग्रह की समीक्षा करने का पहली बार मौका मिला तो मन की भावनाओं को लेखनी के ज़रिये कागज़ पर उतार दिया.
अब जब ये समीक्षा भी सभी को पसंद आ रही है, तो ये ग़म ज़रूर कम हुआ कि मैं कवि नही बन सका.
bahut badiyaa smeeksha hai
wah..yeh bhi khoob rahi......
accha laga....ranjanaa ji...!!
... प्रसंशनीय समीक्षा।
आपके ब्लॉग पर आकर सुखद अनुभूति हुयी.इस गणतंत्र दिवस पर यह हार्दिक शुभकामना और विश्वास कि आपकी सृजनधर्मिता यूँ ही नित आगे बढती रहे. इस पर्व पर "शब्द शिखर'' पर मेरे आलेख "लोक चेतना में स्वाधीनता की लय'' का अवलोकन करें और यदि पसंद आये तो दो शब्दों की अपेक्षा.....!!!
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाए |
इश्वर हम सभी को अपने कर्तव्यों का पालन कराने की शक्ति प्रदान करे .....
आपके बारे में मिश्रा जी एबम अन्य कवियों का विचार पढ़ा बहुत खुशी हुई..
आगे भी अपना योगदान और आशीर्वाद बनाये रखे
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