प्रेम जी आज कल मेरी किताब साया की कविताओं की समीक्षा बहुत दिल से कर रहे हैं ..बहुत कुछ नया जानने को भी मुझे उनसे मिल रहा है ..बहुत से मेल इसकी तारीफ में मिल रहे तो .पहला काव्यसंग्रह होने के कारण कुछ न कुछ कमी भी रह गई है इस संग्रह में ..प्रेम जी ने इस बार बहुत ही रोचक अंदाज़ में पहेली पूछते हुए कविताओं के बारे में लिखा है ...वो जैसा मेल में लिखते हैं वह मैं वैसा ही यहाँ पोस्ट कर देती हूँ ..अब यह पहेली रूपी छंद यहाँ है देखते हैं आप में से कितने लोग इसका सही उत्तर दे पाते हैं :)
रंजना जी,
पिछली बार आपकी कवितायेँ 'मेट्रो' में पढ़ी थी. अक्सर मैं कविताओं के साथ साथ उन्हें पढ़ने की जगह और समय को ले कर भी बहुत मूडी हूँ. मैंने तो अजमल खाँ पार्क में चीड के वृक्षों के नीचे तनहा बैठ कर भी कवितायेँ पढ़ी, तो कभी ट्रेन के आने के इंतज़ार में platform के बेंच पर बैठ कर भी. पर 'मेट्रो' में वो सुविधा कहाँ. ... ज़रा platform के एक छोर से दूसरे छोर तक टहलो तो 'मेट्रो' आ गई समझो. अन्दर बैठने की जगह मिले तो गनीमत, नहीं तो खड़े खड़े खयालों के स्टेशन पार करते रहो. बहरहाल, जब सारा शहर सो जाए, तब चारों तरफ़ फैली शान्ति किसी बुद्धिजीवी को एक वरदान से लगती है, और मुझ जैसा व्यक्ति ऐसे में अपने अध्ययन कक्ष में बैठा सुंदर सुंदर कविताओं का आनंद लेता है. तब कविता भी एक अलौकिक वरदान सी लगती है. मैंने कुछ रोज़ पहले 'साया संग्रह उठाया और उसकी कविताओं के वरदान को आगे आत्मसात करना शुरू किया. पर इस से पहले कि मैं आपके संग्रह की बहुत सुंदर छंद-बद्ध कविताओं पर कुछ लिखूं, यह मेल तो है छंद-मुक्त कविताओं पर कुछ दो टूक बातें कहने को. बुरा इसलिए न मानियेगा कि आप के सामने आलोचक नहीं, एक सुधी पाठक है, जो कविता पठन के ऊंचे ऊंचे आकाश उड़ चुका है. अब 'कामायनी' और 'उर्वशी' का युग कब का लद चुका है. इसलिए उस दौर के बाद की बहुत उत्कृष्ट छंद-मुक्त कविताओं के कुछ उद्धारण दे रहा हूँ. जैसे :
'उस दिन जब तुमने फूल बिखेरे माथे पर/ अपने तुलसी दल जैसे पावन होंठों से/ मैं सहज तुम्हारे गर्म वक्ष में शीश छुपा/ चिड़िया के सहमे बच्चे सा हो गया मूक/ लेकिन उस दिन मेरी अलबेली वाणी में/ थे बोल उठे, गीता के मंजुल श्लोक ऋचाएं वेदों की'.
एक रचनाकार मित्र होने के नाते इन सुंदर पंक्तियों के कवि का नाम बतौर पहेली के आपसे जानना चाहूँगा। बताइये, ये किस उत्कृष्ट कवि की पंक्तियाँ हैं. क्या इतने अपनेपन में लिखी प्रतिक्रिया में, कोई पहेली-नुमा सवाल आप बुरा मानेंगी? क्या options दूँ? तो लो॥ and the options are (a) भवानी प्रसाद मिश्र (b) भारत भूषन अगरवाल (c) धर्मवीर भारती (d) सुमित्रानंदन पन्त
फ़िर मुझे अक्सर एक गीतकार की ये प्रसिद्ध छंद-मुक्त पंक्तियाँ भी याद आ रही हैं:
सुबह की उजली ओस/ और गुनगुनाती भोर से/ मैंने चुपके से एक किरण चुरा ली है/ बंद कर लिया है इस किरण को/अपनी बंद मुट्ठी में/ इसकी गुनगुनी गर्माहट से/ पिघल रहा है धीरे धीरे/ मेरा जमा हुआ अस्तित्व/ और छाँट रहा है/ मेरे अन्दर का/ जमा हुआ अँधेरा/ उमड़ रहे हैं कई जज़्बात/ जो कैद हैं कई बरसों से/ इस दिल के किसी कोने में/ भटकता हुआ सा/ मेरा बावरा मन/ पाने लगा है अब एक राह/ लगता है अब इस बार/ तलाश कर लूंगी मैं ख़ुद को/ युगों से गुम है/ मेरा अलसाया सा अस्तित्व/ अब इस की मंज़िल मैं ख़ुद बनूंगी!!॥
प्रेमचंद सहजवाला
12 टिप्पणियां:
रंजना जी प्रेम जी बहुत मन से आप को पत्र लिखा है...उनकी बातें सीधी दिल में उतर जाती हैं...मैंने उन्हें पढ़ा नहीं लेकिन अनुमान कर सकता हूँ की उन्होंने जो लिखा होगा वो साहित्य की धरोहर ही होगा...
आप की जिस कविता का जिक्र उन्होंने किया है वो साया संग्रह की बेहतरीन कविताओं में से एक है...
नीरज
सुंदर और सार्थक समीक्षा है प्रेम जी की.मैं उनकी बैटन से पूर्ण सहमत हूँ. जो रचना यहाँ उन्होंने यहाँ उधृत की है,मुझे भी बहुत ही पसंद है.
रंजना जी के शब्दों से पूर्ण सहमति
ज़रूर पढ़ें:
हिन्द-युग्म: आनन्द बक्षी पर विशेष लेख
phoolon si mehekti saamiksha bahut sundar
प्रेम जी ने आपकी रचनाओं का मर्म छू लिया है। उनकी दोनों समीक्षाएं सार्थक,अच्छी और सच्ची हैं।
अच्छा लेखन वही है जो मन को भा जाए । लिखने वाला जो चाहता है पहुचाना उससे कम न पंहुचे तो लेखन सार्थक हुआ मान लीजिये। आपके लेखन में भी मर्म है, शब्द है, तारतम्यता है, भाषा शैली है फ़िर वह छंदमुक्त है या नही कोई मायने नही रखता है ।जो सोचकर लिखा वह पाठक को मिला। बस भाषा की, कविता की या लेखन की सार्थकता सिद्ध हो गई ।पढने वाला एक बार आपके लेखन की बयार के साथ बह निकले तो कुछ अर्थ न भी समझ में आए तो भी आनंद आ जाता है ।मैंने प्रत्यक्ष रूप से यह महसूस किया है । आप किसी भी रुद्राभिषेक में देखिये रावण रचित शिवतांडवस्त्रोत्र का पाठ करते समय हर भक्त लाया में रम जाता है जबकि जायदातर को यह समझ में नही आता है कि
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थलेगलेऽवलम्ब्यलम्बितांभुजंगतुंगमालिकाम्। डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयंचकारचंडतांडवंतनोतु न: शिव: शिवम..
का क्या अर्थ है . पर मन को तो बहाकर आनंद के सागर में ले जाने में पूरी तरह से सक्षम है ।
अच्छा है इश्वर से प्रार्थना है कि आप लेखन के क्षेत्र में नाम कमायें
सुशील दीक्षित
हम रंजना जी के साथ हो लेते हैं. आभार.
साधारण रेस्तरां में भी बहुत उयादगार स्वादिष्ट चाय मिल सकती है
रंजू जी की लेखनी पर प्रेम जी की समीक्षा पढ़कर बहुत अच्छा लगा। इस "साधारण" रेस्तरां के आगे सभी पंच-सितारा होटेल बेमानी हैं..
समीक्षा के लिये साया पढी थी, तब एक आस अधूरी रह गई थी, कि इसे शांति से भी पढना चाहिये था.
अब नये अर्थ निकल रहें हैं. स्वयं कवि नहीं हूं मगर अभिव्यक्ति का मर्म समझ सकता हूं. वासंती रंगों में रंगी हुई कवितायें...
प्रेम जी को साधुवाद...
सुंदर एवं रमणीय रचना
Ranjana ji,
Subah ki ujali oah Chhandmukt kavita Bhavgarbhit hai jo shawyam ki "Manjil ki ore" badhne ki jhatpatahat ko darshati hai.
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