रंजना जी,
इस पूरे संग्रह 'साया' में छंद बद्ध कवितायेँ अपेक्षाकृत कम हैं. छंद मुक्त कविता में अपने भाव को एक निश्चित लम्बाई में कैद नहीं करना पड़ता, यह कई कवि मानते हैं. जब कि यह भी उतना ही सच है कि मन यदि भाव-विभोर हो कर कुछ गुनगुनाए तो भावनाएं स्वयमेव किसी काव्य- पंक्ति में कैद सी हो जाती हैं , इस लिए ऐसा कोई क़ानून बनाना कि छंद-मुक्त कविता ही अच्छी या छंदबद्ध, शायद ग़लत हो. कुछ लोग बीच के दशकों में छंद बद्ध कविता को पारंपरिक कह कर नकारते भी रहे, पर अब के कवि के पास विपुल मात्रा में तकनीक मौजूद हैं. कवि को तो अपने मन को मुक्त रखना है, उस का मन पद्यात्मक गद्य कहे, या गद्यात्मक पद्य, या फ़िर किसी फौजी किस्म के अनुशासन में, यानी छंद में. छंद-बद्ध काव्य का एक सशक्त उदाहरण है ग़ज़ल.
ग़ज़ल उर्दू से आई पर हिन्दी में भी असंख्य गज़लें लिखी गई. हिन्दी गज़ल अच्छी या उर्दू, या हिन्दी गज़ल वालों को गज़ल की तमीज़ है या नहीं, या कि गज़ल तो केवल उर्दू वाले ही जानते हैं, यह मारामारी भी खूब चली (काफ़ी कुछ व्यर्थ की भी, इस लिए कि समय के साथ अच्छी हिन्दी गज़ल लिखने वाले , जैसे दुष्यंत आदि उर्दू शब्दों का बेहद सुंदर इस्तेमाल अपनी हिन्दी कही जाने वाली गज़लों में कहते रहे). पर ग़ज़ल के साथ एक और चीज़ जुड़ी है - तक्तीअ. आज कल मुशाइरों कवि-सम्मेलनों में ग़ज़ल पढने वालों से, सुनने वाले खूब लड़ते हैं. हर कोई काफिये, बह्र और अरकान पर अपनी पंडिताई दिखाता है. किसी भी मुशाइरे में जाओ तो आस-पास कुछ ग़ज़ल-इंसपेक्टर ज़रूर तैनात होते है, जिन की पैनी दृष्टि से बच निकलना मुश्किल सा होता है. पर इस के बावजूद, मैंने निष्कर्ष यही निकाला है कि ग़ज़ल के अनुशासन या व्याकरण को समझना बहुत अनिवार्य है, जैसे यह गज़लकार का धर्म हो, वरना किसी डॉक्टर ने नहीं कहा कि आप ग़ज़ल ही लिखें.
रंजना जी, कुछ जानकार लोगों की ऐसी कटु बातें सुन कर कुछ लोग ग़ज़ल लिखते ही नहीं. और ऐसे ही भयभीत लोगों की गिनती में शायद आप भी आती है, क्यों कि एक दो बार मेरे पूछने पर आपने यह कह दिया था कि नहीं, मैं गज़ल लिखती ही नहीं . मेरा मतलब दर-असल यह नहीं, कि जो ग़ज़ल नहीं लिखते, वे कवि ही नहीं हैं. उन के पास भी उत्कृष्ट काव्य है, पर आप की छंद-बद्ध (या छंद-बद्ध सी लगती) कविताओं में मुझे इस बात की भरपूर क्षमता नज़र आई, कि आप गज़ल पर मेहनत करें तो बेहद सुंदर गज़लगो बन सकती हैं. बहरहाल, ग़ज़ल की तकनीक पर मैं भाषण तो कर गया, पर यह कहना भूल गया कि कोई गज़लगो अगर तकनीक के मामले में उस्तादों की लाईन में बैठ भी गया, तो भी वह तब तक अच्छा गज़लगो नहीं कहलाएगा, जब तक उस की बात में दम न हो. शरीर और आत्मा, दोनों का महत्व है. आत्मा-हीन शरीर तो मृत होता है, इस लिए कई लोग खोखला भी लिखते है. जैसे बतौर हास्य के, यह चीज़ पढ़ें ज़रा. मैंने एक फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह को यह पढ़ते हुए देखा:
इकत्तर बहत्तर तेहत्तर चोहत्तर,
पचहत्तर छिअत्तर सतत्तर अठत्तर
लेकिन चलिए, अब आप की कविताओं पर आते हैं. यहाँ तो मैं आपको आपके ही संग्रह की कुछ खूबसूरत पंक्तियाँ सुनाना चाहता हूँ:
इश्क के लबों पर मुद्दतों इक सवाल था,
आ मुझे जान ले हर सवाल का जवाब हूँ मैं
आंखों में रुका हुआ इक कतरा-ऐ-आब हूँ
मैं और कुछ नहीं तेरी वफ़ा का हिसाब हूँ (p 59).
और मुलाहजा फरमाइए:
अजब सिलसिला है बीतती रातों का यहाँ
आंखों में कभी ख्वाब रहा, कभी ख़याल रहा
छिपा कर रखा हर दर्द के लफ्ज़ को गीतों में अपने
जाने दुनिया को कैसे मेरे अश्कों का आभास रहा (p 53)
और एक प्रेमिका का आत्मा-सम्मान भरा गुरूर तो देखिये:
मत देना मुझे भीख में अपना प्यार तू मेरे हमराही,
रख अपनी हमदर्दी पास तू अपने, प्यार मेरा उधार रहा (p 53)
वैसे कोई संग्रह पढ़ते समय, छंद-मुक्त या छंद-बद्ध कविताओं पर अलग अलग टिप्पणी करना चाहिए या नहीं, यह भी मुझे नहीं पता. पर बाहरी शक्लो-सूरत से दो अलग अलग चीज़ें सामने आएं, तो अलग से प्रतिक्रिया देना स्वाभाविक है. इस के बावजूद, पूरे संग्रह की आत्मा की पहचान अधिक ज़रूरी है. कवि किस मिट्टी का बना है, यह तो उसकी दोनों प्रकार की कविताओं से एक ही प्रकार से छलकेगा. फ़िर शराब चाहे हाथों से अंजुरी बना कर पियो, या फ़िर अंग्रेज़ीदा गिलास में, नशा शायद वही होगा, पीने के अंदाज़ अलग-अलग. विशेषकर तब, जब पिलाने वाला भी एक ही हो. अब आपकी कविताओं से किस तासीर का कवि सामने आया है, यह तो मेरी सभी किस्तों में पहले से ही स्पष्ट हो चुका है. 'हे री मैं तो प्रेम दीवानी' वाली समर्पित लुटी-बिछी सी प्रेमिका है एक, जो पगली भी है, पर गुरूर में प्यार को उधार भी दे देती है, पर भीख में प्यार नहीं चाहिए उसे, जो इस बात को ले कर आहत भी है कि उस का हर गीत अधूरा है, क्यों कि जिस के लिए लिखती है वह, वह कोई तानाशाह सा है, जिस के आगे वह बेबस तो है, पर अपने समर्पण को वह नकार भी नहीं सकती!
रीतिकालीन विरहिणियों की पहचान अलग है, पर आपकी कविताओं में प्रेम के दंश और बेहद मीठे दंश का जो आभास होता है, वह इन कविताओं के कवि की भी उपलब्धि है और पाठक की भी. और इस दृष्टि से यह उपलब्धि अपने आप में बेहद मुकम्मल सी हो गई है. इस में कुछ कम या ज़्यादा की गुंजाइश भला क्योंकर हो! परन्तु रंजना जी, कविता का रस लेने वाले तो केवल रस लेते हैं, और यह बताते हैं की रस कम है या ज़्यादा. पर जो मूल्यांकन करते हैं, यानी समीक्षक, वे तो रस ले ही नहीं पाते. वे तो केवल दूसरों के लिए हुए रस को नापते मात्र हैं. इस लिए जैसा मैंने पिछली mails में कहा, मैं निरंतर इन रचनाओं का समीक्षक बनने से बचता रहा. मैं या तो सुधी पाठक बना रहा, या आप का रचनाकार मित्र. सो मित्र होने के नाते मुझे सहसा एक कहानी याद आ रही है, जो आप को बता कर मैं अपनी बात समाप्त करूंगा. अलबत्ता यह ज़रूर कि 'साया' की किस्तें समाप्त होते ही मेरी बात समाप्त नहीं हुई. अभी आप की अन्यत्र छपी हुई कविताओं पर यथा-सम्भव अधिक से अधिक कह कर, मैं यह mail शृंखला सम्पन्न करूंगा.
बहरहाल, वो कहानी यह है कि ...एक नौजवान लड़का कविताएं लिखने लगा. उस के पिता को अज़-ख़ुद खुशी हुई कि उस का बेटा कवि बन गया है, एक दिन बहुत सुंदर रचनाएँ पाठक संसार को देगा. उस का बेटा घर में गोष्ठियां भी करने लगा. बेटे के मित्र प्रोत्साहन पाने के लिए उस के घर आ कर कविताएं पढ़ने लगे और वे अच्छी हैं या नहीं, यह जानने के लिए आतुरता से अक़्सर कवि मित्र के पिता की ओर देखते रहते. पिता सभी लड़कों को खूब प्रोत्साहन देते और कहते कि यह कविता बहुत सुंदर है. पर बेटे की कविता पर वह थोड़ा सा मुंह बना कर कहते - hmmmm! ठीक है! पर अब भी बहुत कमी है. बेटा एक दिन नाराज़ हो गया. गोष्ठियां बंद कर दी. पिता से बोला कि आप मेरे सभी मित्रों की कविताओं की प्रशंसा करते हैं, मेरी कविता पर ही आपकी शक्ल विचित्र सी बन जाती है. पिता कहकहा लगा कर हंस पड़े - 'बेटे, गोष्ठियां चालू रखो. तुम्हारे मित्रों से मुझे कुछ नहीं लेना देना. मैं तो उन्हें केवल प्रोत्साहित करता हूँ, वे जो लिखना चाहें, लिखें. पर तुम से तो मुझे मोह है न, मेरे पुत्र जो हो. मैं चाहता हूँ, तुम बहुत बड़े कवि बनो. इस लिए तारीफ कर के तुम्हें 'फूंक' नहीं देना चाहता (यह पंजाबी मुहावरा है - 'फूंक देना'. काफ़ी दिलचस्प है न!). तुम लिखो खूब लिखो, बहुत अच्छा लिख रहे हो. सो रंजना जी, 'साया' संग्रह पढ़ कर मुझे कैसा लगा, यह अगर आप मुझ से पूछेंगी, तो मैं भी यही कहूँगा - hmmmm! ठीक हैं! क्यों कि मेरा आप के प्रति मोह है न, रचना संसार से जुड़े एक मित्र के नाते. अस्तु, आप मेरी सब बातें समझ गई होंगी. अधिक कहने की ज़रूरत मैं नहीं समझता. केवल यह कि गाड़ी अगर दिल्ली से मुंबई जा रही हो, तो पहला स्टेशन जो भी आए, मुंबई तो अभी बहुत दूर होता है न. सो 'साया' आप का पहला स्टेशन है और आप की यात्रा बहुत लम्बी. मेरी कामना है कि आप एक दिन कविता के आकाश में सितारा बन कर टंके, और पीछे मुड़ कर देखें तो सोचें - hmmmm? क्या यह मेरा संग्रह है? नहीं नहीं, मैं ऐसा लिख ही नहीं सकती!
(अगली मेल में आप की कुछ उन कविताओं पर, जो 'साया' में नहीं हैं, लेकिन जिन्हें पढने की ललक 'साया' पढने के बाद स्वयमेव जागती है) - हार्दिक शुभकामनाएं.
'प्रेमचंद सहजवाला'
धन्यवाद प्रेम जी ,
आपने ने जो समीक्षा की है .उसके लिए तहे दिल से धन्यवाद ....
आपकी ह्म्म्म वाली बात हमेशा हमेशा मेरे लिए एक प्रेरणा बन कर रहेगी ...आपने जिस मेहनत से प्यार से "'साया"' की समीक्षा की है वह मेरे लिए ही नहीं मेरी किताब साया के लिए भी अनमोल है ..इस समीक्षा ने साया को मेरे लिए और भी खास बना दिया है ...आगे आने वाले वक़्त में शायद और भी काव्यसंग्रह आयें और उन पर समीक्षा भी होगी .... पर साया पर आपका लिखा मेरे लिए हमेशा सबसे अलग रहेगा ..तहे दिल से आपका शुक्रिया ..अपनी लिखी अन्य रचनाओं पर हमेशा आपके लिखे का इन्तजार रहेगा ...
रंजना ( रंजू ) भाटिया
60 टिप्पणियां:
प्रेम सहजवाला जी ने बड़ी बेबाकी से बेहतरीन समीक्षा की है.
आपकी किताब ’साया’ जो आपने मुझे इतने प्रेम से सौंपी थी, अभी मेरे सामने ही रखी है. निश्चित ही यह एक बेहद सार्थक समीक्षा है.
बधाई एवं शुभकामनाऐं.
आपने बड़ी ही तन्मयता से समीक्षा को लिखा है। बधाई।
बेहतरीन समीक्षा ...
कभी ख्वाब रहा कभी ख्याल रहा
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
Samiksha ne prabhavit kiya. Agli posts mein 'Saya' ki kavitaon ki pratiksha rahegi.
असाधारण समीक्षा है...किताब में डूब कर लिखी है ...ग़ज़ल के बारे में बहुत सही कहा है...रंजना जी आप ग़ज़ल जरूर लिखें...
नीरज
बढ़िया प्रस्तुति
आपको भी होली पर्व की शुभकामना
असाधारण समीक्षा है...
मुझे तो फिलवक्त ही यह श्रेष्ठ कृति लग रही है यदि ऊपर की लाईने इसी संकलन से उद्धृत हैं तो ....!
जी हाँ अरविन्द जी यह इसी संकलन से हैं पंक्तियाँ .शुक्रिया
बहुत ही बेहतरीन समीक्षा
धन्यवाद
इश्क के लबों पर मुद्दतों इक सवाल था,
आ मुझे जान ले हर सवाल का जवाब हूँ मैं
waah bahut sundar,aur samiksha bhi nayaab.
बेहतरीन काव्य संग्रह की बेहतरीन समीक्षा.. बधाई..
अच्छी समीक्षा की है ।
और रंजना जी की कविताओं की तो बात ही क्या ।
शुभ होली।
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ .
प्रेम जी की सहज समीक्षा में एक विचित्र-सा अपनापन है, जो इस समीक्षा अनुभूति से भी भरता है । मुझे समीक्षा का उनका ढंग बहुत प्यारा लगा । वैसे आपकी प्रेम-पगी कविताओं के लिये प्रेम-पूर्ण समीक्षा ही वांछित थी ।
होली मुबारक......
बहुत सुन्दर ब्लॉग है और आपका बहुत अच्छा लिख रही हैं आप !
लगातार लिखते रहने के लिए शुभकामनाएं
भावों की अभिव्यक्ति मन को सुकुन पहुंचाती है।
लिखते रहिए लिखने वालों की मंज़िल यही है ।
कविता,गज़ल और शेर के लिए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
http://www.rachanabharti.blogspot.com
कहानी,लघुकथा एंव लेखों के लिए मेरे दूसरे ब्लोग् पर स्वागत है
http://www.swapnil98.blogspot.com
रेखा चित्र एंव आर्ट के लिए देखें
http://chitrasansar.blogspot.com
इश्क के लबों पर मुद्दतों इक सवाल था,
आ मुझे जान ले हर सवाल का जवाब हूँ मैं
बेहतरीन समीक्षा...
अजब सिलसिला है बीतती रातों का यहाँ
आंखों में कभी ख्वाब रहा, कभी ख़याल रहा
अहसासों को शब्द दे दिए आपने...
साधुवाद
रंजना जी,
किसी साहित्य की पूर्ण सफलता इस बात में होती है कि वह पढने वाले को मजा पढने के बाद भी देता रहे है, मिश्री की तरह खाने के बाद भी मुँह में मिठास घुली रहे.
ठीक वैसे ही, आपके अशआर लगे. मुझे तो पूरी किताब पढने की ललक हो रही है.
आपके इस ख्याल ने दिल को छू लिया :-
"अजब सिलसिला है बीतती रातों का यहाँ
आंखों में कभी ख्वाब रहा, कभी ख़याल रहा "
आपको धन्यवाद.
मुकेश कुमार तिवारी
आंखों में रुका हुआ इक कतरा-ऐ-आब हूँ
मैं और कुछ नहीं तेरी वफ़ा का हिसाब हूँ ...
बेहतरीन...
bahut achcha laga sameekha ka chautha bhaag padhkar-nishchit roop se saya bahut hi achchha sankalan hoga.
अच्छी समीक्षा .बधाई !!!
वाह!कितनी अच्छी अभिव्यक्ति दी है आप ने....
.......कंचनलता चतुर्वेदी
वाह!कितनी अच्छी अभिव्यक्ति दी है आप ने....
.......कंचनलता चतुर्वेदी
अंतर्मन से लिखी गई है समीक्षा. शब्द व कथ्य को उकेरती अद्भुत शब्द-विन्यास.
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मेरे ब्लॉग "शब्द-शिखर" पर भी एक नजर डालें तथा पढें 'ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड'' एवं अपनी राय दें.
Bahut sundar Review....par yah kitab kahan padhne ko milagi.
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अपने प्रिय "समोसा" के 1000 साल पूरे होने पर मेरी पोस्ट का भी आनंद "शब्द सृजन की ओर " पर उठायें.
SAFAL POST
आप सबको पिता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें ...
DevPalmistry
आप सबको पिता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें ...
DevPalmistry
आपका ब्लॉग नित नई पोस्ट/ रचनाओं से सुवासित हो रहा है ..बधाई !!
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आयें मेरे "शब्द सृजन की ओर" भी और कुछ कहें भी....
Hi Aunty! Ur blog is nice one. Im also here on blog "Pakhi ki duniya".
बेहतरीन समीक्षा ...
कभी ख्वाब रहा कभी ख्याल रहा
बढ़िया प्रस्तुति
नजरे इनायत करने के लिये धन्यवाद ।
मै इस लायक नही की मै समीक्षा कर सकु पर बेहतरीन अभिव्यक्ति
behtareen sameeksha..........
thanx for sharing........
Have a happy and prosperous 'Hindi Day' !
:)
अच्छी एवम सारभूत तत्वों का उल्लेखन
आभार
इश्क के लबों पर मुद्दतों इक सवाल था,
आ मुझे जान ले हर सवाल का जवाब हूँ मैं
आंखों में रुका हुआ इक कतरा-ऐ-आब हूँ
मैं और कुछ नहीं तेरी वफ़ा का हिसाब हूँ
laazwaab wah..bahut khoob hai .pasand aaya hame .happy dashhara .
बेहतरीन समीक्षा..पुस्तक भी मिल जाती तो सोने में सुहागा...
उसका इश्क इतना संजीदा था, मैंने अश्कों की बात छेड् दी थी।
ranjana ji aap mujhe se judi hui hai aur aapko badhai dena hai isliye phir aai hoon yahi ,aapko dhero badhaiyaan diwali ki sabhi ke saath .
आपके शेर/ ग़ज़ल तो अच्छे थे ही प्रेम जी ने जिस बेबाकी के साथ उनकी समीक्षा की है वो बेजोड़ है......समीक्षा अगर तार्किक हो तो बल प्रदान करती है ....मैं तो कहूँगा की प्रेम जी ने साया की समीक्षा कर निश्चित ही हम सबको साया से और भी करीब से जुड़ना का मौका दिया है......साया के लिए आपको भी बधाई
bahut achchi lagi yeh sameeksha......
Regards
plz meri new kavita dekhiyega....
क्षमा चाहूँगा की पिछली समीक्षाएं मैंने बाद में पढीं..
पर उन्हें पढने से ज्यादा उत्सुकता तो अब साया के लिए है
Prem ji bahut bebaaki se saya ke bare mein likha hai
Prem ji ne itni mehnat se itna kuch kaha use padh kar kitaab padhne ki ichcha aur prabal ho gayi hai
aasha hai jald hi kitaab mein bhi padh sakungi
शानदार समीक्षा जो पुस्तक पढने को प्रेरित करती है.
क्या कहूं लोगो ने जो इतना कह दिया, आप बड़ी मशहूर है मुझे ईर्ष्या हो रही है
Kya gazab ameeksha kee hai..ab to aapki kitab padhe bina nahi rah sakti..!
Ye kaise uplabdh hogi? Shayad Rashmi Prabhaji bata saken, yaa aap swayam batayen to aur achha hoga...gar samay ho to itni iltija hai!
कुछ मिला,कुछ सीखा ...धन्यवाद !!!
worpress से blogspot पर आया हूँ एक रचना के साथ...पढ़े और टिपण्णी दे !!!
रंजना जी
...... नव वर्ष 2010 की हार्दिक शुभकामनायें.....!
ईश्वर से कामना है कि यह वर्ष आपके सुख और समृद्धि को और ऊँचाई प्रदान करे.
कल एक मित्र के पास आपकी पुस्तक साया पढ़ने को मिली .प्रेम सहजवाला जी की तरह समीक्षा करना तो मुमकिन नहीं
"सो 'साया' आप का पहला स्टेशन है और आप की यात्रा बहुत लम्बी. मेरी कामना है कि आप एक दिन कविता के आकाश में सितारा बन कर टंके"
हाँ आपकी आखिरी में जो छोटी - छोटी रचनाएँ थी उनमें बहुत कशिश थी ...जैसे "समझौता"
बंधाई स्वीकारें
अहा मैंने ही देर की पढ़ने में....
इश्क के लबों पर मुद्दतों इक सवाल था,
आ मुझे जान ले हर सवाल का जवाब हूँ मैं
आंखों में रुका हुआ इक कतरा-ऐ-आब हूँ
मैं और कुछ नहीं तेरी वफ़ा का हिसाब हूँ
हिसाब लगा रहा हूं कि बात कितनों तक पहुचती है अगर सच्ची है
baat aapki hum tak to pahuch gayii janabb...
mere blog mein to koi post dikh nahi rahi hai kuch galti ho gayi mujhe isliye post nahi kar pa rah hun
इश्क के लबों पर मुद्दतों इक सवाल था,
आ मुझे जान ले हर सवाल का जवाब हूँ मैं
Aisee rachana jisme ho wah kitab apne sangrah me zaror chahungi!
बेजोड़ लेखन की समीक्षा भी भावोँ की पृष्ठभूमि को कितना छू पायी ?
bahut hi sunder.
एक प्रेमिका का आत्मा-सम्मान भरा गुरूर तो देखिये:
मत देना मुझे भीख में अपना प्यार तू मेरे हमराही, रख अपनी हमदर्दी पास तू अपने, प्यार मेरा उधार रहा
इश्क के लबों पर मुद्दतों इक सवाल था, आ मुझे जान ले हर सवाल का जवाब हूँ मैं
आंखों में रुका हुआ इक कतरा-ऐ-आब हूँ मैं और कुछ नहीं तेरी वफ़ा का हिसाब हूँ
रंजू जी बस कमाल है!
अपने अहसासों में पिन्हा किसी कुदरती साया को आप जिस कदर षाया कर रहीं हैं वह लफ्ज़ों में कही गई वाहवाही का मोहताज़ नहीं ।
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