शुक्रवार, 6 मार्च 2009

आंखों में कभी ख्वाब रहा, कभी ख़याल रहा (साया समीक्षा _4

रंजना जी,

इस पूरे संग्रह 'साया' में छंद बद्ध कवितायेँ अपेक्षाकृत कम हैं. छंद मुक्त कविता में अपने भाव को एक निश्चित लम्बाई में कैद नहीं करना पड़ता, यह कई कवि मानते हैं. जब कि यह भी उतना ही सच है कि मन यदि भाव-विभोर हो कर कुछ गुनगुनाए तो भावनाएं स्वयमेव किसी काव्य- पंक्ति में कैद सी हो जाती हैं , इस लिए ऐसा कोई क़ानून बनाना कि छंद-मुक्त कविता ही अच्छी या छंदबद्ध, शायद ग़लत हो. कुछ लोग बीच के दशकों में छंद बद्ध कविता को पारंपरिक कह कर नकारते भी रहे, पर अब के कवि के पास विपुल मात्रा में तकनीक मौजूद हैं. कवि को तो अपने मन को मुक्त रखना है, उस का मन पद्यात्मक गद्य कहे, या गद्यात्मक पद्य, या फ़िर किसी फौजी किस्म के अनुशासन में, यानी छंद में. छंद-बद्ध काव्य का एक सशक्त उदाहरण है ग़ज़ल.

ग़ज़ल उर्दू से आई पर हिन्दी में भी असंख्य गज़लें लिखी गई. हिन्दी गज़ल अच्छी या उर्दू, या हिन्दी गज़ल वालों को गज़ल की तमीज़ है या नहीं, या कि गज़ल तो केवल उर्दू वाले ही जानते हैं, यह मारामारी भी खूब चली (काफ़ी कुछ व्यर्थ की भी, इस लिए कि समय के साथ अच्छी हिन्दी गज़ल लिखने वाले , जैसे दुष्यंत आदि उर्दू शब्दों का बेहद सुंदर इस्तेमाल अपनी हिन्दी कही जाने वाली गज़लों में कहते रहे). पर ग़ज़ल के साथ एक और चीज़ जुड़ी है - तक्तीअ. आज कल मुशाइरों कवि-सम्मेलनों में ग़ज़ल पढने वालों से, सुनने वाले खूब लड़ते हैं. हर कोई काफिये, बह्र और अरकान पर अपनी पंडिताई दिखाता है. किसी भी मुशाइरे में जाओ तो आस-पास कुछ ग़ज़ल-इंसपेक्टर ज़रूर तैनात होते है, जिन की पैनी दृष्टि से बच निकलना मुश्किल सा होता है. पर इस के बावजूद, मैंने निष्कर्ष यही निकाला है कि ग़ज़ल के अनुशासन या व्याकरण को समझना बहुत अनिवार्य है, जैसे यह गज़लकार का धर्म हो, वरना किसी डॉक्टर ने नहीं कहा कि आप ग़ज़ल ही लिखें.

रंजना जी, कुछ जानकार लोगों की ऐसी कटु बातें सुन कर कुछ लोग ग़ज़ल लिखते ही नहीं. और ऐसे ही भयभीत लोगों की गिनती में शायद आप भी आती है, क्यों कि एक दो बार मेरे पूछने पर आपने यह कह दिया था कि नहीं, मैं गज़ल लिखती ही नहीं . मेरा मतलब दर-असल यह नहीं, कि जो ग़ज़ल नहीं लिखते, वे कवि ही नहीं हैं. उन के पास भी उत्कृष्ट काव्य है, पर आप की छंद-बद्ध (या छंद-बद्ध सी लगती) कविताओं में मुझे इस बात की भरपूर क्षमता नज़र आई, कि आप गज़ल पर मेहनत करें तो बेहद सुंदर गज़लगो बन सकती हैं. बहरहाल, ग़ज़ल की तकनीक पर मैं भाषण तो कर गया, पर यह कहना भूल गया कि कोई गज़लगो अगर तकनीक के मामले में उस्तादों की लाईन में बैठ भी गया, तो भी वह तब तक अच्छा गज़लगो नहीं कहलाएगा, जब तक उस की बात में दम न हो. शरीर और आत्मा, दोनों का महत्व है. आत्मा-हीन शरीर तो मृत होता है, इस लिए कई लोग खोखला भी लिखते है. जैसे बतौर हास्य के, यह चीज़ पढ़ें ज़रा. मैंने एक फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह को यह पढ़ते हुए देखा:


इकत्तर बहत्तर तेहत्तर चोहत्तर,
पचहत्तर छिअत्तर सतत्तर अठत्तर


लेकिन चलिए, अब आप की कविताओं पर आते हैं. यहाँ तो मैं आपको आपके ही संग्रह की कुछ खूबसूरत पंक्तियाँ सुनाना चाहता हूँ:


इश्क के लबों पर मुद्दतों इक सवाल था,

आ मुझे जान ले हर सवाल का जवाब हूँ मैं


आंखों में रुका हुआ इक कतरा-ऐ-आब हूँ

मैं और कुछ नहीं तेरी वफ़ा का हिसाब हूँ (p 59).


और मुलाहजा फरमाइए:

अजब सिलसिला है बीतती रातों का यहाँ

आंखों में कभी ख्वाब रहा, कभी ख़याल रहा


छिपा कर रखा हर दर्द के लफ्ज़ को गीतों में अपने

जाने दुनिया को कैसे मेरे अश्कों का आभास रहा (p 53)



और एक प्रेमिका का आत्मा-सम्मान भरा गुरूर तो देखिये:


मत देना मुझे भीख में अपना प्यार तू मेरे हमराही,

रख अपनी हमदर्दी पास तू अपने, प्यार मेरा उधार रहा (p 53)


वैसे कोई संग्रह पढ़ते समय, छंद-मुक्त या छंद-बद्ध कविताओं पर अलग अलग टिप्पणी करना चाहिए या नहीं, यह भी मुझे नहीं पता. पर बाहरी शक्लो-सूरत से दो अलग अलग चीज़ें सामने आएं, तो अलग से प्रतिक्रिया देना स्वाभाविक है. इस के बावजूद, पूरे संग्रह की आत्मा की पहचान अधिक ज़रूरी है. कवि किस मिट्टी का बना है, यह तो उसकी दोनों प्रकार की कविताओं से एक ही प्रकार से छलकेगा. फ़िर शराब चाहे हाथों से अंजुरी बना कर पियो, या फ़िर अंग्रेज़ीदा गिलास में, नशा शायद वही होगा, पीने के अंदाज़ अलग-अलग. विशेषकर तब, जब पिलाने वाला भी एक ही हो. अब आपकी कविताओं से किस तासीर का कवि सामने आया है, यह तो मेरी सभी किस्तों में पहले से ही स्पष्ट हो चुका है. 'हे री मैं तो प्रेम दीवानी' वाली समर्पित लुटी-बिछी सी प्रेमिका है एक, जो पगली भी है, पर गुरूर में प्यार को उधार भी दे देती है, पर भीख में प्यार नहीं चाहिए उसे, जो इस बात को ले कर आहत भी है कि उस का हर गीत अधूरा है, क्यों कि जिस के लिए लिखती है वह, वह कोई तानाशाह सा है, जिस के आगे वह बेबस तो है, पर अपने समर्पण को वह नकार भी नहीं सकती!



रीतिकालीन विरहिणियों की पहचान अलग है, पर आपकी कविताओं में प्रेम के दंश और बेहद मीठे दंश का जो आभास होता है, वह इन कविताओं के कवि की भी उपलब्धि है और पाठक की भी. और इस दृष्टि से यह उपलब्धि अपने आप में बेहद मुकम्मल सी हो गई है. इस में कुछ कम या ज़्यादा की गुंजाइश भला क्योंकर हो! परन्तु रंजना जी, कविता का रस लेने वाले तो केवल रस लेते हैं, और यह बताते हैं की रस कम है या ज़्यादा. पर जो मूल्यांकन करते हैं, यानी समीक्षक, वे तो रस ले ही नहीं पाते. वे तो केवल दूसरों के लिए हुए रस को नापते मात्र हैं. इस लिए जैसा मैंने पिछली mails में कहा, मैं निरंतर इन रचनाओं का समीक्षक बनने से बचता रहा. मैं या तो सुधी पाठक बना रहा, या आप का रचनाकार मित्र. सो मित्र होने के नाते मुझे सहसा एक कहानी याद आ रही है, जो आप को बता कर मैं अपनी बात समाप्त करूंगा. अलबत्ता यह ज़रूर कि 'साया' की किस्तें समाप्त होते ही मेरी बात समाप्त नहीं हुई. अभी आप की अन्यत्र छपी हुई कविताओं पर यथा-सम्भव अधिक से अधिक कह कर, मैं यह mail शृंखला सम्पन्न करूंगा.


बहरहाल, वो कहानी यह है कि ...एक नौजवान लड़का कविताएं लिखने लगा. उस के पिता को अज़-ख़ुद खुशी हुई कि उस का बेटा कवि बन गया है, एक दिन बहुत सुंदर रचनाएँ पाठक संसार को देगा. उस का बेटा घर में गोष्ठियां भी करने लगा. बेटे के मित्र प्रोत्साहन पाने के लिए उस के घर आ कर कविताएं पढ़ने लगे और वे अच्छी हैं या नहीं, यह जानने के लिए आतुरता से अक़्सर कवि मित्र के पिता की ओर देखते रहते. पिता सभी लड़कों को खूब प्रोत्साहन देते और कहते कि यह कविता बहुत सुंदर है. पर बेटे की कविता पर वह थोड़ा सा मुंह बना कर कहते - hmmmm! ठीक है! पर अब भी बहुत कमी है. बेटा एक दिन नाराज़ हो गया. गोष्ठियां बंद कर दी. पिता से बोला कि आप मेरे सभी मित्रों की कविताओं की प्रशंसा करते हैं, मेरी कविता पर ही आपकी शक्ल विचित्र सी बन जाती है. पिता कहकहा लगा कर हंस पड़े - 'बेटे, गोष्ठियां चालू रखो. तुम्हारे मित्रों से मुझे कुछ नहीं लेना देना. मैं तो उन्हें केवल प्रोत्साहित करता हूँ, वे जो लिखना चाहें, लिखें. पर तुम से तो मुझे मोह है न, मेरे पुत्र जो हो. मैं चाहता हूँ, तुम बहुत बड़े कवि बनो. इस लिए तारीफ कर के तुम्हें 'फूंक' नहीं देना चाहता (यह पंजाबी मुहावरा है - 'फूंक देना'. काफ़ी दिलचस्प है न!). तुम लिखो खूब लिखो, बहुत अच्छा लिख रहे हो. सो रंजना जी, 'साया' संग्रह पढ़ कर मुझे कैसा लगा, यह अगर आप मुझ से पूछेंगी, तो मैं भी यही कहूँगा - hmmmm! ठीक हैं! क्यों कि मेरा आप के प्रति मोह है न, रचना संसार से जुड़े एक मित्र के नाते. अस्तु, आप मेरी सब बातें समझ गई होंगी. अधिक कहने की ज़रूरत मैं नहीं समझता. केवल यह कि गाड़ी अगर दिल्ली से मुंबई जा रही हो, तो पहला स्टेशन जो भी आए, मुंबई तो अभी बहुत दूर होता है न. सो 'साया' आप का पहला स्टेशन है और आप की यात्रा बहुत लम्बी. मेरी कामना है कि आप एक दिन कविता के आकाश में सितारा बन कर टंके, और पीछे मुड़ कर देखें तो सोचें - hmmmm? क्या यह मेरा संग्रह है? नहीं नहीं, मैं ऐसा लिख ही नहीं सकती!

(अगली मेल में आप की कुछ उन कविताओं पर, जो 'साया' में नहीं हैं, लेकिन जिन्हें पढने की ललक 'साया' पढने के बाद स्वयमेव जागती है) - हार्दिक शुभकामनाएं.


'प्रेमचंद सहजवाला'



धन्यवाद प्रेम जी ,

आपने ने जो समीक्षा की है .उसके लिए तहे दिल से धन्यवाद ....

आपकी ह्म्म्म वाली बात हमेशा हमेशा मेरे लिए एक प्रेरणा बन कर रहेगी ...आपने जिस मेहनत से प्यार से "'साया"' की समीक्षा की है वह मेरे लिए ही नहीं मेरी किताब साया के लिए भी अनमोल है ..इस समीक्षा ने साया को मेरे लिए और भी खास बना दिया है ...आगे आने वाले वक़्त में शायद और भी काव्यसंग्रह आयें और उन पर समीक्षा भी होगी .... पर साया पर आपका लिखा मेरे लिए हमेशा सबसे अलग रहेगा ..तहे दिल से आपका शुक्रिया ..अपनी लिखी अन्य रचनाओं पर हमेशा आपके लिखे का इन्तजार रहेगा ...


रंजना ( रंजू ) भाटिया