बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

प्रेम सहजवाला जी की साया पर समीक्षा भाग ३

रंजना जी,
पिछली मेल के बाद बीच में अंतराल लंबा हो गया. पर यकीन रखिये, 'साया' का साया मन पर छाया रहा. लीजिये, , मैं आपकी काव्य-पंक्तियों में से कुछ मन को छू लेने वाली पंक्तियाँ निरंतर तलाशता रहा हूँ. इनका एक उदहारण नीचे है:

चाहिए मुझे एक टुकड़ा आसमान/ जहाँ हो सिर्फ़ मेरे दिल की उड़ान/ गूंजें फिज़ा में मेरे भावों के बोल सुरीले/ और खिलें रंग मेरे ही दिल के चटकीले/ कह सकूं मैं मुक्त हो कर अपनी भाषा/ इतनी सी है इस दिल में अभिलाषा.../ सुन कर उसका चेहरा तमतमाया/ जाने क्यों यह सुन कर घबराया/ चीखकर बोला क्या है यह तमाशा/ कहीं दफ़न करो यह मुक्ति की भाषा/ वही लिखो जो मैं सुनना चाहूं/ तेरे गीतों में बस मैं ही नज़र आऊं.../तब से लिखा मेरा हर गीत अधूरा है/ इन आँखों में बसा हुआ/यह एक टुकड़ा आसमान का/ दर्द में डूबा हुआ पनीला है... ('मुक्ति की भाषा' pp 15-16).
नारी की स्वतंत्रता तथा अपने व्यक्तित्व के विस्तार के लिए छटपटाहट और पुरूष के मन पर हावी एक अधिकार-भावना, सम्पूर्ण समर्पण की सशक्त मांग ! ऐसे में नारी का हर गीत अधूरा रह जाना स्वाभाविक है न ! नारी-पुरूष के बीच के contrast को इतनी बारीकी से समझने पर मुबारक.
कुछ और सुंदर पंक्तियाँ सुनिए, अपने ही संग्रह 'साया' से:
शब्दों को बना कर मिलन का सेतु/मैं अपने दिल के इस किनारे से/ तेरे दिल के उस किनारे को छूती हूँ.... बस जानती हूँ कि एक ज़मीन...एक आसमान/ बसते हैं इस माटी के पुतले में भी/ और मोहब्बत का जहान/ एक जाल कभी बुनता है/ कभी उलझता है/ चाहता है सिर्फ़ /यह उसी मोहब्बत का तकाज़ा/ हम से.../जिस का दीदार सिर्फ़ कायनात के पार होता है/ और यह सफर अधूरा रहता है... ('कायनात के पार' pp 67-68).
और ये प्यारी सी दो पंक्तियाँ:
तुम्हारी बातें हैं बहुत बड़ी/ अभी उन में दिल नहीं उलझाना है ('बातें' p 73)
कुछ गुनगुनी तारीफ योग्य (पर गर्मजोशी से वाह वाह कर के नहीं) ये पंक्तियाँ भी लगी:
अब तुम समझ कर भी मेरे इन गीतों को/ कैसे समझ पाओगे/ जिन्हें गा रही हूँ मैं तुम्हारे जाने के बाद/ एक अनबुझी प्यास जो दे गए मेरे तपते मन को/ वो बुझा रही हूँ अपने बहे आंसुओं के साथ II (p32 'प्यास').
रंजना जी, आप के इस संग्रह से मुझे एक साथ कुछ सुखद अनुभूतियाँ भी हुई तथा कुछ सीमाएं भी द्रष्टव्य हुई. सुखद अनुभूति यह कि इन कविताओं में मुझे एक तो कहीं भी inconsistency नज़र नहीं आई. कई कवि पहले संग्रह की जल्दी में कुछ कविताएँ बहुत अच्छी तथा कुछ बेहद निकृष्ट भी भर देते हैं. ऐसा इस संग्रह में नहीं है. संग्रह की कविताओं में स्तर का बहुत असहनीय range नहीं है, वरन औसत से ऊपर और अच्छी या बहुत अच्छी कवितायेँ है. यह एक सुखद अनुभूति है. कुछ कविताओं में शुष्कता ज़रूर लगी तथा कहीं यह कि जहाँ आप अपने विषय से बाहर हुई हैं वहां बहुत अधिक सफल नहीं हो पाई. जैसे 'माँ के जाने के बाद' (प 71) में वह गहराई नहीं डाल पाई आप, जो प्रेम कविताओं में है.

पर सब से अधिक सुखद बात यह कि आप की कविताओं पर भले ही 'व्यक्तिगत' और 'वैयक्तिक' के लेबल लगना समीचीन हो, पर आप अपने विषय से 'ग्रस्त' नहीं लगती, और ही किसी दंश सी लगती वेदना से 'त्रस्त'. जो कवि तो 'ग्रस्त' हैं और 'त्रस्त', वे शायद अपनी कविताओं में समुचित ताज़गी भर पाते है, जो आप की कविताओं में प्रचुर मात्रा में है. एक आकर्षण और एक सुंदर सजावट सी है आप के द्वारा व्यक्त भावनाओं में, वरना हिन्दी कविता के लंबे सफर में तो दुखी हो कर टसुए बहाने जैसी
कवितायेँ भी आई, तो depression से भरपूर बिम्बों की भरमार भी हुई.

पर आप की प्रेम कविताओं की नारी शायद सदियों पुरानी है. 'हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरो दर्द जाने कोई...'. वाली. ... मेरे मन में अक्सर यह द्वंद्व सा होता है, कि क्या नारी की ऐसी समर्पण भावना आज के इस तेज़-रफ़्तार, उड़ते मशीनी युग में कहीं उस के ठगे जाने जैसा तो नहीं है? मेरी बात में दरअसल ग़लत निष्कर्ष निकल जाने का पूरा खतरा है. ऐसा नहीं कि सच्चा प्यार करना घाटे का सौदा है, पर आज की महानगरीय शिक्षित व कामकाजी नारी क्या चाह कर भी अपने भीतर वैसी नारी को पनपने दे सकती है, जैसी आप की कविताओं में है? अब हम 'समर्पण युग' से 'व्यक्तिवाद' के युग में आ गए हैं, जिस में नारी-पुरूष में merge नहीं होती, वरन अपनी एक अलग शख्सियत बनाए रख कर भी पुरूष की हमसफ़र बन सकती है.

इस बात से यह भी लग सकता है कि नारी आज के मशीनी युग में सच्चा प्यार कर ही नहीं सकती. पर इस में आप दो बातें एक साथ जोड़ कर देखें. एक तो यह कि ' और भी गम हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा... '. इस का मतलब यह कि नारी अपनी शक्ति का सदुपयोग केवल घर को सजा कर उस में एक सुंदर सी गुड़िया बनी दर्पण में अपनी मूरत निहारती प्रेम के मोती ही क्यों बीनती रहे. अगर वह अच्छी डॉक्टर है तो जा कर किसी मरीज़ की जान बचाए और वह अच्छी वैज्ञानिक है तो समाज को कोई अच्छा आविष्कार दे. दूसरी बात यह कि नारी के प्रेम की अभिव्यक्ति केवल रसोई घर में खड़ी हो कर पुरूष का खाना बना कर या उस की चीज़ें सहेज कर ही क्यों हो. वह अपनी योग्यता के भरपूर उपयोग से जब हर बुरे दिन में पुरूष का साथ देती है, तो क्या वह सच्चा प्रेम नहीं है? ? मैं जब कभी Metro में सफर करता हूँ, तो नारी के आधुनिक रूप को देख बहुत प्रसन्न होता हूँ. ट्रेन की दम घोंटती भीड़ में भी 'call centre' से ले कर 'multinational company' तक में काम करने वाली नारी हंसती खिलखिलाती है. मोबाइल पर गीत सुनती है. hi bye करती है. क्या आप की दृष्टि नारी के इस विस्तृत आत्म-विश्वासी रूप की तरफ़ गई है? कोई नहीं कह सकता कि यह आधुनिक jeans top से लेस व बहुत से boy-friend रखने वाली लडकी प्यार करती ही नहीं. मिलन और विरह तो उसे भी उतना ही विलोड़ते होंगे, जितना कि रीतिकालीन प्रियतमा को. (रीतिकालीन विराहिनियों में तो एक बार मैंने एक उदाहरण यह भी पढ़ा था कि एक विरहिणी को अजगर निगल गया. पर उस के विरह की आग इतनी ज्वलंत सी थी कि उस से अजगर का पेट तक फट गया और वह बाहर आ गई! आज की heroine सी लगती युवती भी मुमकिन है कि हजारों खतरे मोल ले कर भी किसी तरह अपने प्रेमी तक पहुँच जाए ). प्यार तो तब तक रहेगा जब तक दुनिया रहेगी. और सच्चा प्यार करने वाली नारी भी शाश्वत रूप से तब तक रहेगी।


पर मैं ने यह सब आख़िर क्यों कहा? मैं चाहता हूँ कि आप को अपने भीतर से निकल कर उस नारी के असंख्य रूप देखने चाहियें, जो बाहर समाज में चल फ़िर रही है। वैसे तो इस देश में नारी वह भी है जो अपने ही गोत्र के लड़के से प्रेम करे तो जिंदा जला कर प्रेमी समेत नाले में फेंक दी जाती है. ऐसी नारी भी है जिस का ससुर उस का बलात्कार करे तो वह मुस्लिम शरिया की शिकार हो कर रातों-रात ससुर की बीबी और पति की माँ बन जाती है. नारी वह भी है जिस के सच्चे प्रेम को कतिपय संस्कृति के गिद्ध Valentine's Day पर संस्कृति की दुहाई दे कर तालिबानी किस्म की ज़ंजीरों में जकड़ देना चाहते हैं. पर नारी के इन असंख्य रूपों को उजागर आख़िर कौन करेगा? कवि और बुद्धिजीवी वर्ग ही न. पर यह mail समाप्त करते करते मैं यह भी स्वीकार करूंगा कि मैं ने अनजाने में आप को अपने दायरे से बाहर निकलने की सलाह दे दी है. एक तो पढने वाले को सलाह नहीं देनी चाहिए. जैसे एक चित्रकार ने अपना चित्र एक चौराहे पर टांग दिया था कि इस में कोई गलती हो तो ठीक कर दें. तूलिका और रंग उस ने रख दिए. शाम तक उस की तस्वीर गायब थी और उसे काटती-छांटती तस्वीरों का एक हास्यास्पद जाला सा था. मैंने ऐसा दुस्साहस नहीं किया. और फ़िर मैं तो आप को व्यक्तिगत प्रतिक्रिया दे रहा हूँ, जो न तो समीक्षा है, न पाठकीय प्रतिक्रिया. वरन एक मैत्रीपूर्ण संप्रेषण मात्र है. मित्रों की तो आदत होती है, अपने रचनाकार मित्रों की रचनाओं में अपनी बुद्धिजीवी नाक को घुसेड़ देने की॥हा हा. वैसे कवि को ज़बरदस्ती अपना आसमान या ज़मीन, कोई भी नहीं बदलना चाहिए. पर उसे दूसरी-दूसरी ज़मीनों का भी परीक्षण ज़रूर करना चाहिए, क्या पता इन में से किसी ज़मीन के टुकड़े की छवि पहले से ही मन में रची बसी हो! और जिस ज़मीन की आप पहले ही ज़मींदार हैं, मैं तो उसे छोड़ने की भी बात नहीं कह रहा . यदि इस दायरे में भी आप के पास और अच्छी रचनाएं हैं, तो पहले उसे पूरी तरह तरह से लिखे ... पर हे रचनाकार, यदि मैं अपनी बातें कहने में कहने की सीमाएं लाँघ गया हूँ, तो क्षमा करना. अभी कुछ बातें और आपकी छंद-बद्ध कविताओं को ले कर कहनी हैं, अगली मेल में...

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प्रेम जी आपका मेल पढ़ा .बहुत अच्छा लिखा है आपने ...पर मैंने सिर्फ़ प्रेम कविता नही लिखी है .सिर्फ़ इस संग्रह में वह एक साथ गई हैं ..शायद प्रेम का एक अलौकिक रूप मेरे सामने हर दम रहता है इस लिए ...पर मैं सिर्फ़ प्रेम पर लिखने वाली लेखिका नही हूँ ...मैंने बहुत से उन विषयों पर भी लिखा है जो हमारे आज के समाज का एक घृणित रूप दर्शाते हैं जिस में सबसे प्रमुख रहा है भूर्ण हत्या ..और औरतों की कई सामयिक समस्याओं पर भी मैंने खूब लिखा है और वह खूब पब्लिश भी हुआ है ..अखबारों में पत्रिकाओं में ....अभी अभी मैंने एक श्रंखला साइंस ब्लॉग के लिए लिखी है और वह बेहद पसंद की गई है ...
मैं केवल प्रेम कविता पर नही लिखती ..मेरे प्रिय विषयों में बच्चो पर लिखना और बाल कविता लिखना ..यात्रा पर लिखना भी प्रमुख है ...
मैंने आपको पिछली मेल में भी लिखा था की यह संग्रह एक तरह से अभी सिर्फ़ शुरुआत है ..यदि इस में प्रेम का रंग है तो अगले में वह सब रंग होंगे जो आप देखना चाहते हैं ...

दूसरे आपने जो लिखा कि नारी आज के युग की नहीं है मेरी लिखी कविताओं में ..तो उसका उतर यह है कि प्रेम का एक बहुत सुंदर रूप मेरी आत्मा में बसा है ..वह है दीवानगी की हद तक मोहब्बत करना और पाना ..वह इस समय की रफ़्तार में हो ही नही सकता है ..क्यों की आज कल का प्रेम तो सिर्फ़ मेगी टू मिनट नूडल्स का रह गया है .:) ...प्रेम की वह गंभीरता मुझे आज कल कहीं नही दिखायी देती है .और यह बात सिर्फ़ नारी में ही हो ऐसा भी नहीं है ...शायद बदलते वक्त का रंग है यह ...और दूसरे इसकी वजह यह भी हो सकती है कई मैंने जिस साहित्य को पढ़ा है वह उसी प्रेम की बात करते हैं जो जनून की हद तक गया है ॥चाहे वह अमृता प्रीतम हो चाहे शिवानी ..चाहे इस्मत चुगताई या फ़िर कृष्ण चंदर ..आदि आदि

वैसे आपके विचारों का खुले दिल से स्वागत है हमेशा रहेगा ..इस संग्रह के बारे में आपके यह विचार सही हो सकते हैं पर आप ने अभी मेरा लिखा सिर्फ़ यह संग्रह पढ़ा है जिस में प्रेम की ही बात अधिक है ।पर अगली किताब में आपको ज़िन्दगी के सभी रंग दिखायी देंगे आपकी लिखी अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा ॥शुक्रिया

रंजना (रंजू ) भाटिया

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

छंद मुक्त कविताओं की पहेली और साया

प्रेम जी आज कल मेरी किताब साया की कविताओं की समीक्षा बहुत दिल से कर रहे हैं ..बहुत कुछ नया जानने को भी मुझे उनसे मिल रहा है ..बहुत से मेल इसकी तारीफ में मिल रहे तो .पहला काव्यसंग्रह होने के कारण कुछ न कुछ कमी भी रह गई है इस संग्रह में ..प्रेम जी ने इस बार बहुत ही रोचक अंदाज़ में पहेली पूछते हुए कविताओं के बारे में लिखा है ...वो जैसा मेल में लिखते हैं वह मैं वैसा ही यहाँ पोस्ट कर देती हूँ ..अब यह पहेली रूपी छंद यहाँ है देखते हैं आप में से कितने लोग इसका सही उत्तर दे पाते हैं :)



रंजना जी,
पिछली बार आपकी कवितायेँ 'मेट्रो' में पढ़ी थी. अक्सर मैं कविताओं के साथ साथ उन्हें पढ़ने की जगह और समय को ले कर भी बहुत मूडी हूँ. मैंने तो अजमल खाँ पार्क में चीड के वृक्षों के नीचे तनहा बैठ कर भी कवितायेँ पढ़ी, तो कभी ट्रेन के आने के इंतज़ार में platform के बेंच पर बैठ कर भी. पर 'मेट्रो' में वो सुविधा कहाँ. ... ज़रा platform के एक छोर से दूसरे छोर तक टहलो तो 'मेट्रो' आ गई समझो. अन्दर बैठने की जगह मिले तो गनीमत, नहीं तो खड़े खड़े खयालों के स्टेशन पार करते रहो. बहरहाल, जब सारा शहर सो जाए, तब चारों तरफ़ फैली शान्ति किसी बुद्धिजीवी को एक वरदान से लगती है, और मुझ जैसा व्यक्ति ऐसे में अपने अध्ययन कक्ष में बैठा सुंदर सुंदर कविताओं का आनंद लेता है. तब कविता भी एक अलौकिक वरदान सी लगती है. मैंने कुछ रोज़ पहले 'साया संग्रह उठाया और उसकी कविताओं के वरदान को आगे आत्मसात करना शुरू किया. पर इस से पहले कि मैं आपके संग्रह की बहुत सुंदर छंद-बद्ध कविताओं पर कुछ लिखूं, यह मेल तो है छंद-मुक्त कविताओं पर कुछ दो टूक बातें कहने को. बुरा इसलिए न मानियेगा कि आप के सामने आलोचक नहीं, एक सुधी पाठक है, जो कविता पठन के ऊंचे ऊंचे आकाश उड़ चुका है. अब 'कामायनी' और 'उर्वशी' का युग कब का लद चुका है. इसलिए उस दौर के बाद की बहुत उत्कृष्ट छंद-मुक्त कविताओं के कुछ उद्धारण दे रहा हूँ. जैसे :

'उस दिन जब तुमने फूल बिखेरे माथे पर/ अपने तुलसी दल जैसे पावन होंठों से/ मैं सहज तुम्हारे गर्म वक्ष में शीश छुपा/ चिड़िया के सहमे बच्चे सा हो गया मूक/ लेकिन उस दिन मेरी अलबेली वाणी में/ थे बोल उठे, गीता के मंजुल श्लोक ऋचाएं वेदों की'.

एक रचनाकार मित्र होने के नाते इन सुंदर पंक्तियों के कवि का नाम बतौर पहेली के आपसे जानना चाहूँगा। बताइये, ये किस उत्कृष्ट कवि की पंक्तियाँ हैं. क्या इतने अपनेपन में लिखी प्रतिक्रिया में, कोई पहेली-नुमा सवाल आप बुरा मानेंगी? क्या options दूँ? तो लो॥ and the options are (a) भवानी प्रसाद मिश्र (b) भारत भूषन अगरवाल (c) धर्मवीर भारती (d) सुमित्रानंदन पन्त


फ़िर मुझे अक्सर एक गीतकार की ये प्रसिद्ध छंद-मुक्त पंक्तियाँ भी याद आ रही हैं:

द्वार रखने बंद हैं जो/एक खिड़की खोल रखना/ जिंदगी बाहर तुम्हें मिलने कहीं आयी न हो.
Options : (a) गोपालदास नीरज (b) कुंवर बेचैन (c) सुभद्रा कुमारी चौहान (d) रामावतार त्यागी
जब छंद-मुक्त कविताओं का युग आया, तो यह माना गया कि यदि छंद से मुक्त हुए हैं तो उसमें लय ज़रूर होनी चाहिए. पर चोटी के चंद कवियों को छोड़ कर धीरे धीरे छंद-मुक्त कविता एक उद्योग सा बन गई और कविता पठन में 'झेलने' जैसे मुहावरे डालने पड़े. कुछ घुसपैठिये इस प्रकार भी लिखने लगे:
मित्रो, सदा सच बोलो/ शराब मत पियो/ माँ बाप का कहना मानो/ यही सभ्यता है.
आश्चर्य कि चंद ऐसे कवियों को मंच से शेर की तरह गरजते देखा और कविता के 'क' तक को न समझने वाले लोगों को एक जुनूनी तरीके से तालियाँ बजाते देखा.
मैं आख़िर कहना क्या चाहता हूँ? आपको कविता का आसमान भी दिखा दिया, और रसातल भी. क्या मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैंने तो धूमिल की 'संसद से सड़क तक' भी पढी है और मुक्तिबोध की 'चाँद का मुंह टेढा है' भी, और भवानी प्रसाद मिश्र की 'बुनी हुई रस्सी' पढ़ी है, सो मैं ऐसी वैसी चीज़ भला कैसे पसंद करूंगा? मैं तो पाँच सितारा होटलों में जा चुका हूँ, सो मैं छोटे मोटे रेस्तरां में क्यों बैठूंगा? नहीं. मुझे इस बात का बखूबी एहसास है कि साधारण रेस्तरां में भी बहुत उयादगार स्वादिष्ट चाय मिल सकती है, सो मैंने रात एकांत में 'साया' पढ़ते पढ़ते एक पन्ना ढूंढ लिया, जो सचमुच, न केवल नायाब सा लगा, वरन बेहद सच्ची और ईमानदार अभिव्यक्ति भी, जो कवि कहलाने की पहली शर्त है, जो आपको उन कवियों से दूर छिटक देती है, जो तालियाँ बजवाते हैं. वह कविता ये है:

सुबह की उजली ओस/ और गुनगुनाती भोर से/ मैंने चुपके से एक किरण चुरा ली है/ बंद कर लिया है इस किरण को/अपनी बंद मुट्ठी में/ इसकी गुनगुनी गर्माहट से/ पिघल रहा है धीरे धीरे/ मेरा जमा हुआ अस्तित्व/ और छाँट रहा है/ मेरे अन्दर का/ जमा हुआ अँधेरा/ उमड़ रहे हैं कई जज़्बात/ जो कैद हैं कई बरसों से/ इस दिल के किसी कोने में/ भटकता हुआ सा/ मेरा बावरा मन/ पाने लगा है अब एक राह/ लगता है अब इस बार/ तलाश कर लूंगी मैं ख़ुद को/ युगों से गुम है/ मेरा अलसाया सा अस्तित्व/ अब इस की मंज़िल मैं ख़ुद बनूंगी!!॥

रंजना जी, बनिए आप ख़ुद ही मंज़िल, कविता का रास्ता लंबा है, शुभकामनाओं के शजर रास्ते में खड़े हैं, आपको अपनी छांव में बिठा कर आगे की ताकत देने के लिए, और आपके असंख्य पाठकों की ये शुभकामनाएं शायद उनकी उमीदों की बुनियादों पर खड़ी हैं, उन्हें काव्य रस से सींचना आप की ज़िम्मेदारी है. आज बस इतना ही, अभी कुछ और छंद-मुक्त कविताओं पर लिखूंगा. हो सकता है, कहीं मुझे भी कुछ 'झेलना' भी पड़ा हो...
धन्यवाद
प्रेमचंद सहजवाला