पिछली मेल के बाद बीच में अंतराल लंबा हो गया. पर यकीन रखिये, 'साया' का साया मन पर छाया रहा. लीजिये, , मैं आपकी काव्य-पंक्तियों में से कुछ मन को छू लेने वाली पंक्तियाँ निरंतर तलाशता रहा हूँ. इनका एक उदहारण नीचे है:
चाहिए मुझे एक टुकड़ा आसमान/ जहाँ हो सिर्फ़ मेरे दिल की उड़ान/ गूंजें फिज़ा में मेरे भावों के बोल सुरीले/ और खिलें रंग मेरे ही दिल के चटकीले/ कह सकूं मैं मुक्त हो कर अपनी भाषा/ इतनी सी है इस दिल में अभिलाषा.../ सुन कर उसका चेहरा तमतमाया/ न जाने क्यों यह सुन कर घबराया/ चीखकर बोला क्या है यह तमाशा/ कहीं दफ़न करो यह मुक्ति की भाषा/ वही लिखो जो मैं सुनना चाहूं/ तेरे गीतों में बस मैं ही नज़र आऊं.../तब से लिखा मेरा हर गीत अधूरा है/ इन आँखों में बसा हुआ/यह एक टुकड़ा आसमान का/ दर्द में डूबा हुआ पनीला है... ('मुक्ति की भाषा' pp 15-16).
पर सब से अधिक सुखद बात यह कि आप की कविताओं पर भले ही 'व्यक्तिगत' और 'वैयक्तिक' के लेबल लगना समीचीन हो, पर आप अपने विषय से 'ग्रस्त' नहीं लगती, और न ही किसी दंश सी लगती वेदना से 'त्रस्त'. जो कवि न तो 'ग्रस्त' हैं और न 'त्रस्त', वे शायद अपनी कविताओं में समुचित ताज़गी भर पाते है, जो आप की कविताओं में प्रचुर मात्रा में है. एक आकर्षण और एक सुंदर सजावट सी है आप के द्वारा व्यक्त भावनाओं में, वरना हिन्दी कविता के लंबे सफर में तो दुखी हो कर टसुए बहाने जैसी
कवितायेँ भी आई, तो depression से भरपूर बिम्बों की भरमार भी हुई.
पर आप की प्रेम कविताओं की नारी शायद सदियों पुरानी है. 'हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरो दर्द न जाने कोई...'. वाली. ... मेरे मन में अक्सर यह द्वंद्व सा होता है, कि क्या नारी की ऐसी समर्पण भावना आज के इस तेज़-रफ़्तार, उड़ते मशीनी युग में कहीं उस के ठगे जाने जैसा तो नहीं है? मेरी बात में दरअसल ग़लत निष्कर्ष निकल जाने का पूरा खतरा है. ऐसा नहीं कि सच्चा प्यार करना घाटे का सौदा है, पर आज की महानगरीय शिक्षित व कामकाजी नारी क्या चाह कर भी अपने भीतर वैसी नारी को पनपने दे सकती है, जैसी आप की कविताओं में है? अब हम 'समर्पण युग' से 'व्यक्तिवाद' के युग में आ गए हैं, जिस में नारी-पुरूष में merge नहीं होती, वरन अपनी एक अलग शख्सियत बनाए रख कर भी पुरूष की हमसफ़र बन सकती है.
इस बात से यह भी लग सकता है कि नारी आज के मशीनी युग में सच्चा प्यार कर ही नहीं सकती. पर इस में आप दो बातें एक साथ जोड़ कर देखें. एक तो यह कि ' और भी गम हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा... '. इस का मतलब यह कि नारी अपनी शक्ति का सदुपयोग केवल घर को सजा कर उस में एक सुंदर सी गुड़िया बनी दर्पण में अपनी मूरत निहारती प्रेम के मोती ही क्यों बीनती रहे. अगर वह अच्छी डॉक्टर है तो जा कर किसी मरीज़ की जान बचाए और वह अच्छी वैज्ञानिक है तो समाज को कोई अच्छा आविष्कार दे. दूसरी बात यह कि नारी के प्रेम की अभिव्यक्ति केवल रसोई घर में खड़ी हो कर पुरूष का खाना बना कर या उस की चीज़ें सहेज कर ही क्यों हो. वह अपनी योग्यता के भरपूर उपयोग से जब हर बुरे दिन में पुरूष का साथ देती है, तो क्या वह सच्चा प्रेम नहीं है? ? मैं जब कभी Metro में सफर करता हूँ, तो नारी के आधुनिक रूप को देख बहुत प्रसन्न होता हूँ. ट्रेन की दम घोंटती भीड़ में भी 'call centre' से ले कर 'multinational company' तक में काम करने वाली नारी हंसती खिलखिलाती है. मोबाइल पर गीत सुनती है. hi bye करती है. क्या आप की दृष्टि नारी के इस विस्तृत आत्म-विश्वासी रूप की तरफ़ गई है? कोई नहीं कह सकता कि यह आधुनिक jeans top से लेस व बहुत से boy-friend रखने वाली लडकी प्यार करती ही नहीं. मिलन और विरह तो उसे भी उतना ही विलोड़ते होंगे, जितना कि रीतिकालीन प्रियतमा को. (रीतिकालीन विराहिनियों में तो एक बार मैंने एक उदाहरण यह भी पढ़ा था कि एक विरहिणी को अजगर निगल गया. पर उस के विरह की आग इतनी ज्वलंत सी थी कि उस से अजगर का पेट तक फट गया और वह बाहर आ गई! आज की heroine सी लगती युवती भी मुमकिन है कि हजारों खतरे मोल ले कर भी किसी तरह अपने प्रेमी तक पहुँच जाए ). प्यार तो तब तक रहेगा जब तक दुनिया रहेगी. और सच्चा प्यार करने वाली नारी भी शाश्वत रूप से तब तक रहेगी।
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प्रेम जी आपका मेल पढ़ा .बहुत अच्छा लिखा है आपने ...पर मैंने सिर्फ़ प्रेम कविता नही लिखी है .सिर्फ़ इस संग्रह में वह एक साथ आ गई हैं ..शायद प्रेम का एक अलौकिक रूप मेरे सामने हर दम रहता है इस लिए ...पर मैं सिर्फ़ प्रेम पर लिखने वाली लेखिका नही हूँ ...मैंने बहुत से उन विषयों पर भी लिखा है जो हमारे आज के समाज का एक घृणित रूप दर्शाते हैं जिस में सबसे प्रमुख रहा है भूर्ण हत्या ..और औरतों की कई सामयिक समस्याओं पर भी मैंने खूब लिखा है और वह खूब पब्लिश भी हुआ है ..अखबारों में पत्रिकाओं में ....अभी अभी मैंने एक श्रंखला साइंस ब्लॉग के लिए लिखी है और वह बेहद पसंद की गई है ...
मैं केवल प्रेम कविता पर नही लिखती ..मेरे प्रिय विषयों में बच्चो पर लिखना और बाल कविता लिखना ..यात्रा पर लिखना भी प्रमुख है ...
मैंने आपको पिछली मेल में भी लिखा था की यह संग्रह एक तरह से अभी सिर्फ़ शुरुआत है ..यदि इस में प्रेम का रंग है तो अगले में वह सब रंग होंगे जो आप देखना चाहते हैं ...
दूसरे आपने जो लिखा कि नारी आज के युग की नहीं है मेरी लिखी कविताओं में ..तो उसका उतर यह है कि प्रेम का एक बहुत सुंदर रूप मेरी आत्मा में बसा है ..वह है दीवानगी की हद तक मोहब्बत करना और पाना ..वह इस समय की रफ़्तार में हो ही नही सकता है ..क्यों की आज कल का प्रेम तो सिर्फ़ मेगी टू मिनट नूडल्स का रह गया है .:) ...प्रेम की वह गंभीरता मुझे आज कल कहीं नही दिखायी देती है .और यह बात सिर्फ़ नारी में ही हो ऐसा भी नहीं है ...शायद बदलते वक्त का रंग है यह ...और दूसरे इसकी वजह यह भी हो सकती है कई मैंने जिस साहित्य को पढ़ा है वह उसी प्रेम की बात करते हैं जो जनून की हद तक गया है ॥चाहे वह अमृता प्रीतम हो चाहे शिवानी ..चाहे इस्मत चुगताई या फ़िर कृष्ण चंदर ..आदि आदि ।
वैसे आपके विचारों का खुले दिल से स्वागत है हमेशा रहेगा ..इस संग्रह के बारे में आपके यह विचार सही हो सकते हैं पर आप ने अभी मेरा लिखा सिर्फ़ यह संग्रह पढ़ा है जिस में प्रेम की ही बात अधिक है ।पर अगली किताब में आपको ज़िन्दगी के सभी रंग दिखायी देंगे आपकी लिखी अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा ॥शुक्रिया
रंजना (रंजू ) भाटिया