सोमवार, 11 मार्च 2013

आपके कहे यह शब्द मेरे लिए मार्गदर्शन रहेंगे



ख़ुद को ख़ुद में पाने की एक चाह है यहाँ
प्यार का एक पल मिलता है यहाँ धोखे की तरह
बरसती इन चँद बूंदों में सागर तलाश करते हैं
घायल रूहों में अब भी जीने की आस रखते हैं

जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं ........(साया संग्रह से )



जब आप लिखते हैं तो सिर्फ अपने मन की बात लिखते हैं ..या जो आपके दिल में उमड़ घुमड़ के बरसना चाहता है वह लिखते हैं ...और एक रिसाव की तरह बहा हर लम्हा आपकी कलम से कागज़ में बिखर जाता है ...पर उसको पढने वाला कैसे किस तरह से लेगा यह पूरी तरह से उस पढने वाले दिल पर इन लम्हों पर होता है | पहला संग्रह साया और उसके बाद कुछ मेरी कलम से संग्रह बहुत से दोस्त पढ़ चुके हैं ,पढ़ रहे हैं और अपनी राय विचार अपने सोच से अपने ढंग से दे रहे हैं ...अशोक जेरथ जी ने मेरी लिखी इन दोनों किताबों को पढ़ा और जिस तरह से लिखा वह मेरे दिल में कहीं गहरे उतर गया ...उनकी लिखी बात को समझा पर  हर सवाल का जवाब कहाँ से कैसे लिखूं ...कोशिश है यह एक ..बस



मासूम सी मेरी बातें
अभी बहुत नादान है

बड़ी बड़ी बातो से
यह बिल्कुल अनजान है,...(saya )


अशोक जी कलम से

साया में
बातें , मासूम प्यार , ख़ामोशी ,समय ,तस्वीर , नदी का पानी ,इन्द्रधनुष ,वक्त ...
आसमान में लहराती चुनरियां ... हम कविताओं को नहीं देख रहे हैं ...वे परख रही हैं ... पहचान बन भी रही है और बनते बनते रुक भी रही है ... हिरनों के झुण्ड ... कुछ पास आ छू रहे हैं और कुछ असमंजस से घिरे देखे जा रहे हैं ... कई कवितायें मन के वौलेट में दुबक गयी हैं ...

फिर पढ़ना होगा ... कुछ कवितायें माम जस्ते के अनुभवों को ओढ़े है ... मानो अनुभव कपडे बन गए हों ...कुछ दूसरी माम जस्ते हो मन को पीट रही हैं ... पढते हैं , सोने लगते हैं ...चौंक कर उठते हैं ...पढ़े हुए को पढ़ने लगते हैं ...उस पढ़े हुए को भी जो साये में नहीं है ...

लिखेंगे ...


अशोक जी ...साया में लिखी बाते वाकई कई बहुत मासूम हैं जो अभी सिर्फ अपनी बात कहने की हिम्मत कर रही है ....आप के लिखे में वह अक्स उभर आया है जो साया में लिखी हर पंक्ति कहना चाहती है ...

एक शोर सा दिल में जाने यह है कैसा
एक आग दिल में कोई जैसे तूफ़ान उठा ले
अन्जाना अंधकार है  मेरे चारो तरफ़
करता है दूर सितारो से भरा गगन कैसे इशारे ..........(.साया )


अशोक जी की कलम से ..
रंजू ,
कुछ कविताओं को और पढ़ा ... मन के भीतर आ मछलियों जैसी हो रहीं हैं ... कुछ और नुमायाँ से वीरान खंडहर बन रहीं है मन में ... ता उम्र साथ चलेंगी ... किसी भी कविता को मरना नहीं चाहिए ... वीराना नहीं बनना चाहिए ... ऐसी ही रहना चाहिए कि उनकी कंघी कर सके ... नई फ्राक पहना  सकें ... स्कूल भेज सकें ... लाड कर सकें ... नहीं क्या ...


हम्म सही कहा अशोक जी आपने ..कसी भी कविता को मरना या वीरान नहीं होना चाहिए ..पर कई बार यह चुप्पी इस तरह से ताले लगा कर बैठ जाती है की किस चाबी से इसको खोल के मुक्त आकाश में उड़ा दे समझ नहीं आता ....बस बेबसी से उन लम्हों को देखते हैं .निहारते हैं और मुस्कराहट होंठो से चिपका कर कह देते हैं
सुबह की उजली ओस/ और गुनगुनाती भोर से/ मैंने चुपके से एक किरण चुरा ली है/ बंद कर लिया है इस किरण को/अपनी बंद मुट्ठी में/ इसकी गुनगुनी गर्माहट से/ पिघल रहा है धीरे धीरे/ मेरा जमा हुआ अस्तित्व/ और छाँट रहा है/ मेरे अन्दर का/ जमा हुआ अँधेरा/ उमड़ रहे हैं कई जज़्बात/ जो कैद हैं कई बरसों से/

अशोक जी कलम से
अनुपमा इनकी कवितायें पढ़ने के बाद जब आँखें बंद कीं तो लगा ... बहुत सी छोटी छोटी लड़किया बैल से पहले इधर उधर दौड रही हैं ... खेल रही हैं ... ऐसी सुंदर कवितायें कहाँ दिखती हैं इन दिनों ..


कविताएं सबकी अपनी पसंद है अशोक जी आपने इनको पसंद किया अच्छा और बहुत अच्छा लगा .........मुझे लगता था की इस तरह की कविताएं तो सिर्फ अपने दिल की बात है .जो मैंने कह दी ..बहुत से बुद्धिजीवियों को शायद यह आलतू फ़ालतू बातें भी लगती हो ..पर मैं वही करती हूँ   लिखती हूँ जो दिल में आता है ..:)आपने इतना स्नेह दिया की हर पंक्ति खुद में मुस्करा उठी है ...और आपके दी टिप्पणी के बाद मैंने दोनों संग्रह आपके पढ़े की नजर से पढ़े हैं :)

अशोक जी की  कलम से

रंजू ... कौन कब तक जियेगा यह तो ऊपर वाले के हाथ होता है ... बाबू मोशाये ... ( किसी को उसकी आयु से अधिक जिंदा रख पाएंगी आप ... वीरानियों से कन्नी काटिए )


:) नहीं कटती अब यह विरानियाँ :)

अजब सिलसिला है बीतती रातों का यहाँ/आंखों में कभी ख्वाब रहा, कभी ख़याल रहा
छिपा कर रखा हर दर्द के लफ्ज़ को गीतों में अपने/जाने दुनिया को कैसे मेरे अश्कों का आभास रहा
(साया )

अशोक जी कलम से
वीरानियों में कवितायें हों पर कविताओं में वीरानियाँ ... ?
रंजू जानती हैं ... साया लगभग पूरी पढ़ ली है ... साया के बाद रंजू को थोडा थोडा साया जैसी रंजू ही बने रहना चाहिए था ... पर ऐसा कम होता है ... आपकी कविताएं दर्पण है जिसमे आपके अंतर के अक्स नज़र आते हैं ... पुराने भी और नए भी ... अब किसी कविता से कोई बादलों को बुलाये और कोई बर्फों को तो कोई सागर के वोर्टेक्स को ... इसमें बेचारी कविता का दोष नहीं है ... किसी से बात करते हुए जब अचानक आपकी किसी कविता को देखने लगें तो यकीन होता है कि कविता साथ साथ है ... साया को हमने ऐसा ही पाया ...


बहुत बहुत शुक्रिया अशोक जी ..आपके कहे यह शब्द मेरे लिए मार्गदर्शन रहेंगे ..हमेशा ..आपके स्नेह के आगे में नतमस्तक हूँ ...आगे भी यूँ ही अपना आशीर्वाद बनाए रखे ....

2 टिप्‍पणियां:

Manohar Chamoli ने कहा…

वाह ! मजाा आ गयां आपकी सृजशीलता को सलाम..

ashokkhachar56@gmail.com ने कहा…

waaaah khub